After a brief incident that I witnessed travelling
from New Delhi to Amritsar in train last week, I had to write something to
share my thoughts on the same. Why is it that we portray ourselves as complex
creatures, who are well sophisticated and decent for the outside world, but as
we enter our houses, we immediately get transformed into a frustrated lot,
which has his family as his very own punching bag.
Helping me, Arun, a single father narrates these
lines to you, while his son, whom he calls ‘Chhotu’ out of love is still crying
sitting besides him.
पल पल गुज़रे समय यह कैसा,
बीते वक़्त को याद कर जीये जा रहे हैं.
भागे जायें समय के साथ हम भी,
इस दौड़ में भाग लिये जा रहे हैं.
भागते हुये एक दिन ख्यालों में अपने,
रास्ते में एक अजनबी से था टकराया.
“मुझे माफ करना, मैनें आपको देखा नहीं”
यह कहके मैनें अपना शिष्टाचार निभाया.
घर पहुँचा जैसे मैं थकाहारा,
छोटू मेरा दौड़ के मिलने आया.
“दूर रहो तुम मुझसे थोड़ा”,
थोड़ा सा मैं उसपे चिल्लाया.
रसोई में जब खड़ा हुआ मैं,
आलू गोभी काट रहा था.
दिन भर की थकान मैं अपनी,
गुस्से से छोटू को बाँट रहा था.
एक झटके से गुस्सा दिखाके मैनें,
छोटू को खूब रुला दिया.
थी उसकी खुशी ही मेरी खुशी,
यह कैसे मैनें भुला दिया.
खड़ा था वो चुपके से पास मेरे,
करना चाहता मुझे आश्चर्यचकित जैसे.
मेरे चिल्लाने से टूटा था उसका दिल,
रोते बिलख़ते छोटू गया वो ऐसे.
जाते जाते हाथ से उसके,
गिरे थे रंगीन कुछ वो फूल.
वो गिरे फूल कह रहे थे मुझसे,
जो मैं कभी ना पायूँगा भूल.
हम लगे थे अलग डालियों पे,
जब छोटू ने हमको उतारा था.
सारा दिन उसने किया नाम तुम्हारे,
खुशी तुम्हारी खातिर बलिदान
हमारा था.
नीले फूल जो पसंद थे सबसे ज़्यादा तुम्हें,
सबसे ऊँची डाली से उनको था खास उतारा.
दो बार गिरा वो ज़ोर से इस कोशिश में,
फिर भी तुम्हारी खातिर
वो हिम्मत ना हारा.
फूलों की अनकही कहानी थी यह,
जिसने था मुझे हिला दिया.
छोटू को कितना प्यार था मुझसे,
इस सच्चाई से मुझको मिला दिया.
एक सच्चाई से निकला मैं बाहर,
तो एक और सच्चाई ने झंझोड़ दिया.
हुया जब एहसास मुझे गलती का मेरी,
तो उसने अंदर से मुझको तोड़ दिया.
बाहर वालों से माफी माँगना,
यह हमारा शिष्टाचार और
विकास था.
घरवालों से प्यार से बतियाना,
शायद हमारे
उसूलों के खिलाफ था.
परेशान हुया इस घटना से मैं,
यह एक सीख भी मैनें पायी थी.
अकलमंदों की भीड़ में थे हम,
पर अकल हमको आज ही आई थी.
घर वालों संग प्यार से बोलो,
उनके प्यार को कभी मत तोलो.
घर से बाहर जो भी हो तुम,
घर आकर दिल के दरवाज़े खोलो.
घर में बसी हैं खुशियां भरपूर,
इन खुशियों का पिटारा तुम खोलो
घर से बाहर जैसे भी हो तुम,
घर आकर तो
दिल के दरवाज़े खोलो.
I hope you liked it. Comments are always
welcome. :D