Friday, April 18, 2014

Is this Love?


Just tried penning down thoughts of a Young Boy, who is confused if ‘he was indeed in love’. 

चाँद से भी पूछा एक बार मैने,
क्या तुझें देखूँ या अपना यार.
चाँद भी मुस्कुराया और बोला मुझसे,
तरसता हूँ मैं भी उसका दीदार.

एक तेरी ही मुस्कुराहट है जो,
मुझे ग़म सारे भुला देती है.
तेरी एक पलकें झुकाने की अदा,
इस दिल को तेज़ धड़का देती है.

प्यार से जब तुम पुकारते हो,
एक अरमान सा दिल में जगता है.
कह तो दूँ यह तुमसे में,
पर डर सा दिल में लगता है.

रब्ब से मांग लूँ तुझको मैं,
ऐसा दिल चुपके से कहता है.
सीने में रहता था कभी मेरे,
अब जाने कहाँ वो रहता है.

धड़कता था पहले कभी चुपचाप से,
वो कुछ समय से खो गया है.
क्या प्यार इसी को कहते हैं,
जो मुझको शायद हो गया है.

रहता था अपनी दुनिया में बेखबर,
अब सपनों की नगरी में खो गया है
क्या प्यार इसी को कहते हैं,
जो मुझको शायद हो गया है.

He is still searching for an answer. Do you have one for him?

Saturday, April 12, 2014

Strongly Against #BackingRapists


Wednesday, April 09, 2014

Ab ki Baar, Kiski Sarkar??

It's Election Season in India these days. While all the news channels are busy giving their bit of breaking news related to Elections, there is something even we, the Voters, need to do to make this whole exercise a success. The whole last week and the running week, office talks have been centred around what all will be done on the 'Official Holiday' on the Voting Day in Delhi NCR, April 10. All the talks have different agenda, but the main agenda, voting, lacks a mention out there. I tried penning down a few lines to urge Voters to vote:

अब की बार, किसकी सरकार??













दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र,
हर किसी की अलग अलग राय है.
कहीं युवराज का भाषन यहाँ,
तो कहीं नमो की चाय है.

झाड़ू बजना शुरू हुआ अब,
लालटेन भी यहाँ जलती है.
हाथी ऊपर बहुत हुई सवारी,
साइकल भी खूब अब चलती है.

बदले की राजनीति हैं सब करते,
इन सबमें इनको महारत है.
बिगड़ा कुछ नहीं इन नेताओं का,
बर्बाद हुआ यह भारत है.

जब तक ना हो यहाँ मतदान,
करलो तब तक दर्शन इनके भरपूर.
पाँच साल फिर दिखेंगे ना यह,
रहेंगे अपने चुनाव क्षेत्र से दूर.

जीवन की यह विडंबना देखो,
कुर्ता सफेद पर दिल काले हैं.
लेकर जाओ अपने दर्द पास इनके,
तो इन लोगों के दिलों पे ताले हैं.

हर नेता पे करके भरोसा,
कितने धोखे हैं हमने खाये.
तिजोरियाँ इनकी भर्ती रहें बस,
जनता रहे रोती चाहे चिल्लाये.

होती हर वोट की है अहमियत पूरी,
अब वोट करने के लिये भागो रे.
मतदान दिवस की छुट्टी मना ली बहुत,
भारत के युवा, अब तो जागो रे.

बहुत सह लिये है घाव भारत ने,
हो हमारा नारा यही इस बार,
उठो, जागो और वोट करो सब,
लेकर है आनी लोकतंत्र की सरकार.

वोट करना है जिम्मेदारी हमारी ,
वोट करेंगे हम ज़रूर इस बार.
है नये भारत की आवाज़ नयी,
अब की बार, लोकतंत्र की सरकार.


I will vote. Will you? 

Thursday, April 03, 2014

Decent for the World, but Frustrated for Family!!

After a brief incident that I witnessed travelling from New Delhi to Amritsar in train last week, I had to write something to share my thoughts on the same. Why is it that we portray ourselves as complex creatures, who are well sophisticated and decent for the outside world, but as we enter our houses, we immediately get transformed into a frustrated lot, which has his family as his very own punching bag.

Helping me, Arun, a single father narrates these lines to you, while his son, whom he calls ‘Chhotu’ out of love is still crying sitting besides him.


पल पल गुज़रे समय यह कैसा,
बीते वक़्त को याद कर जीये जा रहे हैं.
भागे जायें समय के साथ हम भी,
इस दौड़ में भाग लिये जा रहे हैं.

भागते हुये एक दिन ख्यालों में अपने,
रास्ते में एक अजनबी से था टकराया.
मुझे माफ करना, मैनें आपको देखा नहीं
यह कहके मैनें अपना शिष्टाचार निभाया.

घर पहुँचा जैसे मैं थकाहारा,
छोटू मेरा दौड़ के मिलने आया.
दूर रहो तुम मुझसे थोड़ा”,
थोड़ा सा मैं उसपे चिल्लाया.

रसोई में जब खड़ा हुआ मैं,
आलू गोभी काट रहा था.
दिन भर की थकान मैं अपनी,
गुस्से से छोटू को बाँट रहा था.

एक झटके से गुस्सा दिखाके मैनें,
छोटू को खूब रुला दिया.
थी उसकी खुशी ही मेरी खुशी,
यह कैसे मैनें भुला दिया.

खड़ा था वो चुपके से पास मेरे,
करना चाहता मुझे आश्चर्यचकित जैसे.
मेरे चिल्लाने से टूटा था उसका दिल,
रोते बिलख़ते छोटू गया वो ऐसे.

जाते जाते हाथ से उसके,
गिरे थे रंगीन कुछ वो फूल.
वो गिरे फूल कह रहे थे मुझसे,
जो मैं कभी ना पायूँगा भूल.

हम लगे थे अलग डालियों पे,
जब छोटू ने हमको उतारा था.
सारा दिन उसने किया नाम तुम्हारे,
खुशी तुम्हारी खातिर बलिदान हमारा था.

नीले फूल जो पसंद थे सबसे ज़्यादा तुम्हें,
सबसे ऊँची डाली से उनको था खास उतारा.
दो बार गिरा वो ज़ोर से इस कोशिश में,
फिर भी तुम्हारी खातिर वो हिम्मत ना हारा.

फूलों की अनकही कहानी थी यह,
जिसने था मुझे हिला दिया.
छोटू को कितना प्यार था मुझसे,
इस सच्चाई से मुझको मिला दिया.

एक सच्चाई से निकला मैं बाहर,
तो एक और सच्चाई ने झंझोड़ दिया.
हुया जब एहसास मुझे गलती का मेरी,
तो उसने अंदर से मुझको तोड़ दिया.

बाहर वालों से माफी माँगना,
यह हमारा शिष्टाचार और विकास था.
घरवालों से प्यार से बतियाना,
शायद हमारे उसूलों के खिलाफ था.

परेशान हुया इस घटना से मैं,
यह एक सीख भी मैनें पायी थी.
अकलमंदों की भीड़ में थे हम,
पर अकल हमको आज ही आई थी.
 
घर वालों संग प्यार से बोलो,
उनके प्यार को कभी मत तोलो.
घर से बाहर जो भी हो तुम,
घर आकर दिल के दरवाज़े खोलो.
घर में बसी हैं खुशियां भरपूर,
इन खुशियों का पिटारा तुम खोलो
घर से बाहर जैसे भी हो तुम,
घर आकर तो दिल के दरवाज़े खोलो.







I hope you liked it. Comments are always welcome. :D